यूनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन
ख़्वाजा मीर ' दर्द '
ग़ज़ल in -आग़
अपने तईं तो हर घड़ी ग़म
है, अलम है, दाग़ है।
याद करे हमें
कभी, कब यह तुझे दिमाग़
है ?
जी की ख़ुशी
न गिरो सब्ज़ा-ओ-गुल के हाथ कुछ,
दिल हो
शगुफ़ता जिस जगह वह ही चमन है, बाग़ है।
किस के
चशम-ए-मस्त ने
बज़म को छका दिया ?
मस्ल-ए-हबाब सिर नगूँ
शरम से हर आयाग़ है।
जलते ही जलते सुबह
तक गुज़री उसे तमाम शब
दिल है कि शोला है
कोई, शमा है या चिराग़
है ?
पाइये किस
जगह बता ऐ बुत-ए-बेवफ़ा तुझे,
उम्र-ए-गुज़ाश्ता की तरह ही सदा सुराग़ है।
सैर-ए-बहार-ओ-बाग़ से हम को माफ़ कीजिये,
उसके
ख़याल-ए-ज़ुल्फ़
से ' दर्द ' किसे फ़राग़ है ?
To glossed version of Khwaja Mir Dard's
ग़ज़ल in -आग़
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Keyed in and posted 17 Mar 2003.